भाषा की परिभाषा
भाषा मानवमुख निःसृत वाक् प्रतीकों की वह व्यवस्था है, जिसके माध्यम से कोई व्यक्ति अथवा कोई भाषा समुदाय आपस में विचारों का आदान प्रदान करते हुए क्रियाशील होता है।भाषा की विशेषताएँ या उसके अभिलक्षण के विषय में कहा जा सकता है कि भाषा-
(1) सामाजिक वस्तु है।
(2) भाषा वैचिक या आनुवांशिक संपत्ति नहीं है।
(3) भाषा अर्जित वस्तु है।
(4) भाषा परंपरागत वस्तु है।
(5) भाषानित्य परिवर्तनशील है।
(6) भाषा व्याकरण द्वारा नियंत्रित होती है।
(7) प्रत्येक भाषा की भौगोलिक एवं ऐतिहासिक सीमा होती है।
(8) प्रत्येक भाषा का अपना स्वतंत्र ढाँचा होता है।
(9) भाषा कठिनता से सरलता तथा संयोगावस्था से अयोगावस्था की ओर जाती है। तथा
(10) भाषा का कोई अंतिम रूप नहीं होता।
जहाँ तक भाषा व्यवस्था का प्रश्न है, वह मूलतः स्वनों की व्यवस्था है। वस्तुतः भाषा के दो पक्ष हैं-
स्थूल या भौतिक पक्ष जिसे हम स्वन व्यवस्था के रूप जानते है तथा दूसरा है सूक्ष्म या बौद्धिक पक्ष, जिसके अंतर्गत अर्थ व्यवस्था निहित है। स्पष्ट है कि भाषिक संरचना का आधार भी इन्हीं व्यवस्थाओं के उपादानों पर खड़ा है। जहाँ तक भाषा व्यवहार का प्रश्न है वह तीन स्तरों पर देखा जा सकता है वे हैं-
(1) व्यक्ति स्वयं
(2) व्यक्ति-व्यक्ति
(3) व्यक्ति तथा समाज
भाषा प्रकार्य के अंतर्गत इसे तीन दृष्टियों से देखना चाहिए-
(1) वक्ता
(2) श्रोता
(3) संदर्भ।
वक्ता की दृष्टि से भाषा अभिव्यक्ति प्रकार्य करती है, श्रोता की दृष्टि से प्रभाविक प्रकार्य तथा संदर्भ की दृष्टि से सांम्प्रेणिक प्रकार्य करती है।
भाषा की उत्पत्ति का सिद्धान्त
- दैवीय सिद्धांत
- अनुकरण व अनुरणन का सिद्धांत
- सामाजिक समझौता सिद्धांत
- पूह-पूह सिद्धान्त
- धातु सिद्धान्त
- विकासवादी सिद्धान्त
भाषा का दैवीय सिद्धान्त
जब हम किसी चीज की उत्पत्ति के बारे में नहीं समझ पाते हैं तो ये मान लेते हैं कि उसे ईश्वर ने बनाया है । अबूझ होने के कारण शुरू में भाषा की उत्पत्ति के बारे में यही कहा गया कि भाषा का निर्माण स्वयं ईश्वर ने किया है।
जब भाषा को ईश्वर प्रदत्त मान लिया जाता है तो निश्चित तौर पर वेद,कुरान,या बाइबिल की भाषा को भी ईश्वर की भाषा मान लिया जाता है । इन सबको अपौरेषेय कहा जाता है । ऐसा माना जाता है कि वे अपने आप पैदा हुए । कुरान की आयतें इन्सानों से पहले पैदा हुई। वेद इन्सानों से पहले पैदा हुए और बाइबिल की जो ओल्ड टेस्टामेंट है उसकी भाषा स्वयं ईश्वर की भाषा है । उसी तरह हम समस्त भाषाओं की जननी चाहे वो अरबी हो ,हिब्रू या संस्कृत हो उन सबको ईश्वर की भाषाएँ मानने लगते हैं।
अब प्रश्न यह उठता है कि वास्तविक भाषा कौन सी है ? अरबी,हिब्रू या संस्कृत। और यदि सभी भाषाओं को ईश्वर ने बनाया है तो क्या ईश्वर और भी भाषाओं को जानता है जो दूसरे देशों में बोली जाती है जैसे चीनी भाषा,रूसी भाषा,जर्मन भाषा या कोई अन्य भाषा। यदि मान लिया जाए कि ईश्वर सर्वशक्तिमान है और वह सारी भाषाएँ जानता है तो सवाल यह उठता है कि-
स्वयं ईश्वर की भाषा कौन सी है ?
ईश्वर की भाषा होने पर भी संस्कृत और हिब्रू मृतप्राय अवस्था तक क्यों पहुँच गई ?
इस प्रकार भाषा का दैवीय सिद्धान्त वैज्ञानिकता की कसौटी पर खरा नहीं उतरता है।
भाषा का अनुकरण व अनुरणन का सिद्धान्त
भाषा विज्ञानियों का अनुमान है कि इन्सानों ने पशु पक्षियों की ध्वनियों का अनुकरण करते हुए पहले कुछ शब्द निर्मित किए फिर उन्ही के आधार पर धीरे धीरे भाषा का उद्भव हुआ। अनुरणन सिद्धान्त के अनुसार निर्जीव वस्तुओं की ध्वनियों के अनुरणन से शब्दों और भाषा की उत्पत्ति हुई। किन्तु ऐसे ध्वनि अनुकरणात्मक शब्दों की संख्या काफी कम है। कुछ ऐसे शब्द जिनका अर्थ उनकी ध्वनि का अनुसरण करता है उदाहरण के लिए इस प्रकार है- जैसे कोयल की ध्वनि कू-कू
अन्य भाषाओं में भी उससे मिलते जुलते शब्द है-
हिन्दी-कोयल
संस्कृत-कोकिल
अँग्रेजी-कू कू
लैटिन-कुकुलस
ग्रीक-कुकुरव
दुनिया की तमाम भाषाओं में कोयल के लिए वैसे ही शब्द हैं जैसी वह ध्वनि निकालती है।
इसी तरह निर्जीव वस्तुओं की ध्वनियों का अनुकरण करते हुए कुछ शब्द बनाए गए जिसे अनुरणन सिद्धान्त कहते हैं। ये दोनों सिद्धान्त लगभग समान हैं। लेकिन जब हम गहराई से अध्ययन करते हैं तो यह पाते हैं कि ऐसे शब्द बहुत कम हैं जिनका अनुकरण या अनुरणन हुआ है।
सामाजिक समझौता सिद्धान्त
ऐसा माना जाता है कि शुरू में इन्सानों ने शारीरिक संकेतों से काम चलाया । वे इशारे करते थे और इशारों के माध्यम से बात करते थे । लेकिन सब संकेतों से काम नहीं चला तो उन्होने परस्पर समझौता किया व विभिन्न पदार्थों व क्रियाओं के लिए ध्वनि संकेत निर्धारित किए और उन्हें परस्पर सबके लिए स्वीकार्य बनाया। किन्तु अब प्रश्न यह उठता है कि-
जब लोगों के पास कोई सामान्य भाषा नहीं थी तो उन्होने समझौता कैसे किया होगा ?
अगर पहले से कोई भाषा थी तो नई भाषा की आवश्यकता ही क्यों पड़ी ?
इस प्रकार सामाजिक समझौता सिद्धांत भी बहुत तर्कसंगत नहीं प्रतीत होता है।
पूह-पूह सिद्धान्त
ऐसा माना जाता है कि मनुष्य ने सबसे पहले अपने भावों की अभिव्यक्ति के लिए कुछ ध्वनि संकेतों का प्रयोग किया होगा जैसे-हे, अरे, ओ, आ।
वे भाव क्रमशः शून्य होते गए होंगे और उन्ही से भाषा की उत्पत्ति हुई होगी।
भाषा की उत्पत्ति का यह सिद्धान्त भी आलोचनाओं का उत्तर नहीं दे सका क्योकि तीव्र आवेगों और सूक्ष्म भावों की अभिव्यक्ति के लिए मनुष्य बहुत थोड़े ध्वनि संकेतों का प्रयोग करता है उसने भाषा की उत्पत्ति सिद्ध करना अत्यंत कठिन है।
धातु सिद्धान्त
यह एक वैज्ञानिक सिद्धान्त है। धातु का मतलब किसी शब्द का रूट। हर शब्द का एक रूट उसकी मूल धातु होती है। अर्थात धातु ही मूल ध्वनि संकेत है जिसका परवर्ती युग में विकास हुआ और इसके अलग अलग रूपों का निर्माण हुआ। मैक्समूलर ने कहा-
“हम भाषा की काँट छांट करते करते अंत में धातुओं पर पहुँचते हैं,और इन धातुओं में से प्रत्येक धातु कोई विचार नहीं है, किन्तु साधारण विचार प्रकट करती हैं। प्रत्येक नाम या संज्ञा यदि हम उसका पूरा पूरा विश्लेषण करेंगे तो उसके भीतर हमें क्रियावाचक धातु मिलेगी, जो बताती है कि यह नाम या संज्ञा इस विशेष विचार के कारण अपने इस रूप में बनाई गई है।“
लेकिन यह धातु किस प्रकार निर्मित हुई इस सिद्धांत की बहुत बड़ी सीमा है और स्वयं मैक्समूलर आगे चलकर भाषा की उत्पत्ति के दैवीय सिद्धान्त के करीब पहुँच जाते हैं। एक महत्वपूर्ण बात यह भी है कि इस सिद्धान्त का विश्लेषण करते समय सिद्धांतकारों ने योरोपीय भाषाओं को ही ध्यान में रखा। दुनिया की शेष भाषाओं का क्या इस सिद्धांत की मदद से विश्लेषण किया जा सकता है इसके बारे में कुछ नही बताया।
विकासवादी सिद्धांत
यह इंगित सिद्धांत और टा-टा सिद्धान्त के मेल से निर्मित माना जाता है।
इंगित सिद्धान्त-शुरू में मनुष्य हाथ के संकेतों से भावों की अभिव्यक्ति करता होगा और धीरे-धीरे उसके उच्चारण अवयव हाथों का अनुकरण करने लगे। इसी प्रक्रिया से भाषा की उत्पत्ति हुई। टा-टा सिद्धान्त की भी लगभग यही मान्यतायें हैं।
भाषा का इंगित सिद्धांत, जिसे सांकेतिक सिद्धांत भी कहा जाता है, यह मानता है कि भाषा की उत्पत्ति मानव के भावों, विचारों और पदार्थों को व्यक्त करने के लिए विभिन्न संकेतों और ध्वनियों का उपयोग करने से हुई है। यह सिद्धांत मूल रूप से इस बात पर जोर देता है कि प्रारंभिक अवस्था में, मनुष्य ने अपने विचारों को शारीरिक संकेतों जैसे कि हाथ, पैर, सिर आदि के माध्यम से व्यक्त किया, और बाद में उन्होंने सामाजिक समझौते के आधार पर ध्वन्यात्मक संकेत विकसित किए।
शारीरिक संकेत:
संकेत सिद्धांत के अनुसार, शुरू में, मनुष्य ने अपने भावों और विचारों को अपने शरीर के अंगों का उपयोग करके व्यक्त किया होगा। उदाहरण के लिए, सिर हिलाकर सहमति या असहमति दर्शाना, या हाथ का उपयोग करके किसी वस्तु को इंगित करना।
ध्वन्यात्मक संकेत:
जैसे-जैसे मनुष्य अधिक जटिल विचारों को व्यक्त करने लगे, उन्होंने ध्वन्यात्मक संकेतों का उपयोग करना शुरू कर दिया। इन संकेतों को आज भाषा के रूप में जाना जाता है। ये संकेत विभिन्न भावों, विचारों और पदार्थों के लिए बनाए गए थे।
सामाजिक समझौता:
यह सिद्धांत इस बात पर भी जोर देता है कि इन ध्वन्यात्मक संकेतों को सामाजिक समझौते के माध्यम से विकसित किया गया था। अर्थात्, लोगों ने एक साथ मिलकर तय किया कि कौन सी ध्वनि किस भाव या विचार को दर्शाती है।
भाषा का विकास:
संकेत सिद्धांत के अनुसार, भाषा का विकास एक सतत प्रक्रिया है। जैसा कि मनुष्य नए भावों, विचारों और पदार्थों को व्यक्त करने लगे, उन्होंने नए संकेतों और ध्वनियों को विकसित किया। इस प्रकार, भाषा समय के साथ विकसित होती गई।
भाषा विज्ञानी अलेक्ज़ेंडर जोहानसन ने भाषा की चार अवस्थायें बताई हैं-
1-मनुष्य से सबसे पहले भाव-व्यंजक ध्वनि संकेतों का उपयोग शुरू किया।
2-उसके बाद विभिन्न जीवों की आवाज और निर्जीव ध्वनियों का अनुकरण कर शब्द निर्मित करना शुरू किया।
3-अनजाने में मनुष्य ने हाथ के संकेतों का अनुकरण करना शुरू कर दिया। इसी प्रक्रिया में स्वर और व्यंजन उच्चारण विधि भी स्वतंत्र होती चली गई।
4-जब स्थूल भावों और मूल ध्वनियों के आधार पर ध्वनि संकेत बन गए तो उसी आधार पर धीरे धीरे कालांतर में सूक्ष्म भावों की अभिव्यक्ति के लिए भी ध्वनि संकेत निर्मित होते चले गये।
भाषा की उत्पत्ति के सभी सिद्धांतों को समेकित रूप से भाषा का विकासवादी सिद्धांत कहते हैं।