ईर्ष्या

अरुणोदय की मधुमय बेला में मैंने उसे देखा।
नव प्रभा की भांति वह भी हर्ष से खिला था,
मानो धरा से फूटी किसी नई कोंपल को,
पहली धूप का स्नेह मिला था।
शिष्टता के अलंकार में अति विनीत हो,
उसने मुझसे नमस्कार किया,
और अप्रतिम आनंद का प्रतिमान,
मेरे ह्रदय में उतार दिया।
मुझे यह प्रकृति की शुभकामनाओं के सन्देश सा लगा,
और माँ के आशीर्वचनों की छांव में,
सफलता की ख़बरों से मेरा भाग्य जगा।

अरुणोदय की मधुमय बेला में मैंने उसे देखा।
नवप्रभा की भांति इस बार हर्ष से खिला नही,
अंतस में कुंठा, दृष्टि में रोष लिए,
कुशलछेम के औपचारिक शूल फेंक,
चला गया और मुझसे मिला नहीं।
मै नित्य निरपराध अपराधी सा,
उसके भाव में परिवर्तन की आशा करता रहा,
और वह किसी स्पर्धा के प्रतिभागी सा
‘ईर्ष्या’ की अग्नि में जलता रहा।