प्रवासी मजदूर

कोरोना काल कहे या कहे विध्वंस
वे राह में झेल रहे पीडा़ और दंश
चल दिये है सोचकर मिल जायेगी मंजिल
नही मालूम काल भी बैठा है ताक में।

झेले दुःख, गरीबी,कठिनाई, असहनीय
मारे हुए हालात के थे वैसे ही वे मगर
कोरोना ने उन्हे और भी मजबूर बना दिया।

मासूमों संग थामे उंगलियान काफिला निकल पडा़
बची खुची चीजों को सामान बना कर,
निकल पडे़ है हौंसले को बुनियाद बना कर।
भूख प्यास बेबसी को लिए अपने संग
शायद कोई मिल जाये यही सोच करके बस
दिन दोपहर रात को एक जैसा बना दिया।

पेट में रोटी नही बस पाँव में छाले
लसलसी आँखो में बसे भूख के निवाले।
कैसी ये इन्सानियत कैसा ये नाता
इन्सान का इन्सान का जैसे टूट रहा वास्ता।
थकती नही कलम बया करते ये दास्तां
बस रुक जा ऐ समय तूझे ईश्वर का वास्ता।