दस्तूर

अभावों में जी लेना मेरा दस्तूर है साहब
फटे पतलून में पैबंद लगा लेना मुझे मंजूर है साहब।
झांकता हूँ जब इमारतों को जमी से, कद छोटा हो जाता है
नजर कदमों पर रख कर चलना मुझे मंजूर है साहब।

तुम्हारे रंग दोमहले हमें बस मुँह चिढा़ते हैं
मेरे टूटे झरोखे ही मुझे सपने दिलाते हैं
कभी बेचैन होते हो जो अपने उन ख्वाबों के महलों से
देखकर ये टूटा घर ही तुम्हें सुकून दिलाते हैं।

तुम्हारी दावतों में शामिल कभी हम हों न हों साहब
तुम्हारी जूठन से मिट जाये कभी ये भूख भी साहब
मगर उस भूख में शामिल हमारा नाम होता है
तुम्हारी रौनक के शिरकत का यही बस दाम होता है।

हमें अफसोस है बेशक अपने हालात पर साहब
मगर कह दूँ हकीकत इस बात का साहब
तुम्हारा तिनका भी गर डूबे तुम्हें तब नींद नहीं आती
हमारा घर भी अगर डूबे वही हम चैन से सोते।

तुम्हारे शाम में मिलती हमारी रात होती हैं
कभी हालात में भीगी अगर बरसात होती हैं,
बनाकर नाव कागज की कहीं जब तुम डुबोते हो
उसी बारिश के रुकने पर हम अपना बिस्तर सुखाते हैं।