मैं चाहती हूँ

मैं चाहती हूँ ये हवायें चलती रहें
और झड़ जाये इन मुरझायी पेडो़ के पत्ते
जो उन्मुक्त है बिना किसी धूप के
उन पत्तों की वे लकीरे जो धारीदार है
और उनमें है बेवजह की खड़खडा़हट
ये पत्तियां विस्थापित हो अपनी सतह से,
और हो जाये उनमें सजगता
असहज सी
मैं चाहती हूँ कि ये वनफूल खिले रहें
क्योंकि इन्हे देना है ऊर्जा और रंग
उन्हें जो इनके लिए आशान्वित है,
मैं चाहती हूँ की इनकी सुगन्ध सीमित रहें,
सिर्फ उनके लिए जो इसके हकदार है
मैं चाहती हूँ ये बादल ये हवायें ये धूप
तीनों सम्मिलित हो एक साथ और
प्रदर्शित करे अपने होने का कारण
मैं चाहती हूँ कि सागर का प्रवाह होता रहें
और बनते रहें इसके जल में मोती
जो कम कर दे जल का खारापन,
मैं चाहती हूँ की यह समय भी स्थिर हो
एक समय के लिए
और उस समय में
माप लूँ मैं सम्पूर्ण समय की परिधि।