भूख की उदासी

अलसायी सी दोपहर
उसके जेहन में कुछ जज्बात से है
जाने किसके घर के चूल्हे सुलग रहे है
उसके उठते धुएं से सराबोर
यह दोपहर उसकी याद दिलाती है
उसके आँखो के आँसू कब सैलाब बन गये थे
हँस कर न कह पाने की एक चुभन सी थी
भूख से कुलबुलाते बच्चे जैसे बेईमान हो गये थे
पर टूटते साँसों की एकबारगी देखी थी हमने,
वीरान सड़को पर उड़ते अंधड़
जैसे एक उदासी दे जाते थे
कहकहाते पंक्षी जैसे बेसुरे हो गये थे
रोटियाँ न होते हमने सुना था
पर रोटियाँ को स्वार्थी होते हमने देखा था
इसका आकार भी कुछ कुरुप हो गया था
जैसे किसी भूखे के पास जाने से कतराती हो।