तलाश

मंजिल है और राह भी है बस जाना है
अब उस सुनसान अंधेरी गलियों में
जहाँ परछायी भी नही है साथ
मंजिल है इसलिए तो जाना ही है
हाथ की मशाल घबराती है जाने से
जेहन के अदृश्य पटल पर स्मृतियाँ पसरी है
कुछ काली तो कुछ धुँधली धुँधली सी
क्षीण साँसो की सनसनाहट सुनायी देती है
पहुँचते ही गली में अचानक कौंध गयी एक चमक सी
मशाल की रोशनी भी तेज हो गयी
क्षीण साँसो की सनसनाहट भी शिथिल हो गयी
लिए हाथों में बांसुरी एक राहगीर,
छेड़ दिया था उसने एक मधुर तान
मुस्कान कुछ जानी पहचानी सी लगी
सम्बोधन कौन,
दिया एक टूक जवाब
मैं मानवता की मशाल।