जेठ की दुपहरी

ज्येष्ठ का महीना
जलती शिखर दोपहर
निकलता नमक सा पसीना
तेरी मुहब्बत की याद
उन अधूरी यादों और
वादों के जख्मों पर
रिसकर मेरा तन तपाता है।

इस चमचमाती और तपती धूप
तर बतर पसीना
तेरी उन खामोशीयों का
गवाह यह ज्येष्ठ का महीना
बिना कुछ कहे
अपनी वेदना से
तन और मन जलाता है।

याद है पौह महीने की रात
कुछ लज्जा, कुछ कुलबुलाहट
हो ना सकी कोई बात
वादा था मिलन का
इंतजार था ज्येष्ठ की दुपहरी का
तेरी खामोशी तेरे अधूरे वादे
याद आते हैं
‘मोहन’को तपाते हैं।