बचपन के दिन

स्मृतियों के मेघ बरसते भीग रहा है अन्तर्मन
दूर गाँव की पगडंडी पर चहक रहा मेरा बचपन
ढल रही दुपहरी गौशाला से कजरी गईया रही पुकार
बाबा संग छोटे चरवाहों की टोली देखो है तैयार
बंधन मुक्त किन्तु अनुशासित चले झूमते जीव सभी
ज्यों उल्लास की आभा मे हुए सभी सजीव अभी
द्वेष नहीं है क्लेश नही है कहीं किसी के होने से
जात पात और भेद भाव के दैत्य लगे हैं बौने से।

खेल शुरू है आज तो काका लगता है कि हारेंगे
बच्चों ने हुंकार भरी है शायद बाजी मारेंगे
वो तालाब के ऊपर जो पतली आम की डाली है
मै उस पर उल्टा झूल रहा हर फिक्र से तबीयत खाली है
कच्चे आमों से लदा हुआ यह वृक्ष न जाने किसका है
जो पत्थर मार गिरा देगा सच पूछो तो उसका है ।
दूर किसी कुटिया से देखो बूढ़ी काकी चिल्लाती है
भागो सारे बच्चों वह डंडा लेकर आती है।
अद्भुत है यह दृश्य मनोहर भूले नहीं बिसरता है
मन बचपन की स्मृतियों मे खिलता और महकता है।