बारीक महीन सी उमड़ती घुमड़ती हवाओं के संग मचलती गिरती फूलों पत्तियों पर जमती फिसलती तुम लाख झाड़ती पोंछती हटाती दबे पांव चुपके से फिर आ जाती बांध दो कस कर रख दो बंद कर छुपा कर किवाड़ में कोई निशानी जब खोलेगे एक चादर बनी चिढ़ाती हुई मुस्कुराती ताने मारती ।
कितने दिवस बीत गए तुम्हारी याद में आये भूल जाते हो अपनी सबसे प्यारी अनमोल चीज को हृदय से लगाये फिरते थे जिसे गाते मुस्कुराते हक जताते, अनगिनत ख्वाब सजाए ।
कुछ पुरानी किताबों, तस्वीरों,उपहारों पर जमी “धूल” जो तुम्हारे लिए है बेकार “निर्जीव” सी प्रश्न चिन्ह लगाती तुम्हारे बोध तुम्हारी संवेदना पर कण कण दिखती है शास्वत सजीव सी।।