राजनीति

किसे फर्क पड़ता है
कौन झूठा कौन सच्चा है,
जिसमें स्वार्थ सिद्ध हो जाए
वही तो अच्छा है।
स्वार्थ ही वर्तमान
राजनीति का मानक है,
भ्रम है कि ये बदलाव
अचानक है।

ये तो अनुक्रम है
सामाजिक और नैतिक विकारों का,
बदलती शिक्षा
और बदलते संस्कारों का।

क्या होना चाहिए
इस पर सभी एक मत है,
किन्तु कर्म में भिन्न-भिन्न
स्वार्थ संलिप्त है।

कर्तव्यपरायणता का मिथक
सामाजिक और नैतिक
सत्य से पृथक,
स्वार्थ ही राजनीतिक
विकृति का कारण है
व्यक्तिगत स्तर पर
हर व्यक्ति इसका उदाहरण है।

तो क्यों न कुछ बदलने की
उम्मीद से पहले
खुद को बदला जाए,
सर्वप्रतिष्ठित सत्य के
उसी एक मार्ग पर चला जाए
जिसपर सभी एक मत हैं,
उन्नति और उल्लास को सहमत है।

व्यक्तिगत, सामाजिक और राष्ट्रीय
प्रगति की सुरम्य प्रतीति है,
सही मायनों में
यही तो “राजनीति” है।