मैं लिख रही हूँ

मैं लिख रही हूँ
रोज जीने के लिए
लिखना अच्छा लगता है
मैं हँसते- हँसते मिटने के नए
लिख रही हूँ रोज
लिखना अच्छा लगता है।

बनावट के बने रिश्तों को
देख रही हूँ रोज
ऐसे रिश्तों को छोड़ देना ही
अच्छा लगता है
इन रिश्तों से अच्छा अपना
दोस्ती का रिश्ता अच्छा लगता है।
जिसे छोड़ दिया कभी हमने
अब उस दर्द को
लिखना अच्छा लगता है।

तुम्हारे लिए
कितना सहा था हमने
लकीरों में छिपा वो दर्द,
वो सारी
तकलीफें लिख देना
अच्छा लगता है !
उस दर्द से राहत मिल जाती है
ये सोच कर अब
लिखना अच्छा लगता है।

बड़ी खामोशी से
आ के तुम दिल में
समाए थे
मोहब्बत के निराले,
अंदाज़ तुमने दिखाए थे
ये धोखा था
या मेरी नज़रों का कसूर
ऐसा लगता है मुझे
अब हो गई हूँ मजबूत
अपने अंदर के ख्यालात
लिखना अब अच्छा लगता है।

अलख जगी है दिल में
आवाज़ आती है कोई
लिख दो अब तुम
हर दर्द –ए -राज ‘कंचन’
यहाँ सिर्फ धोखा और फरेब है
फकीरों के वेश में कोई लुटेरा है
फकीरी के हर राज को
लिखना अच्छा लगता है।

ज़रा सा होश में आ गई हूँ अब
होश में आकर जोश में अब
लिखना अच्छा लगता है।