प्रियतमा

अतीत के खंडहर,
किताबी सी रचना ।
शीशा का घर,
उसी का आईना ।
बिजलियों में पकड़,
चूड़ियों का खनकना ।
बेजुबानों जैसा सरोवर,
कीचड़ था पसरना ।
भारती सरोज किधर,
कैसे मछलियां तैरना ?
पथ पर पत्थर,
कुछ नव संभावना ।
नियति की नज़र,
आग यहां बना ।
कुछ तो अंदर,
तलाशने को सपना।
सूरज है बाहर,
तपिश से पसीना।
हवा के ठोकर,
विष नहीं अपना।
चांदनी रात मंजर,
अनायास सर्प डरावना।
चंदन है उधर,
जीना भी मरना।
देखा है नगर,
तौबा वो गहना ।
वीर असली धरोहर,
वसुंधरा भी संवेदना ।
बढ़ाओं अपनी डगर,
करें हम सामना ।
वक्त गया गुजर,
फलक था नापना ।
सिमटा हर अक्षर ,
हर शब्द साधना ‌‌।
धूल, विगुल खंजर,
दीवार जरूरत ढहना ।
वाह ये सागर,
युद्ध भी ठना ।
अहिंसा नाहक लहर,
क़ैद है मानसरोवर,
मौन समक्ष छना ।
इश्क है ईश्वर,
श्रृंगार कैसा अनमना ??
कहां गए मुसाफ़िर,
गुम क्यों भावना ???
कैसा होता शिखर,
प्रियतमा ! जीवन वेदना !!