कुर्सी

बोल कुर्सी की जय
नायक भी अब तय 
नायिका का सुंदर लय
खलनायकी का भी भय 
जनहित पर है प्रलय
तुष्टिकरण बना हुआ आश्रय 
ग़लत भी तो क्षम्य
तौबा किस्से है अजेय
नेता-नेत्रियों की रूह प्रमेय
अपवाद कहां यह विषय
चीखकर कह रहा समय
अभिनंदन‌ में कितना व्यय 
मंहगाई भी तो निर्दय
कौन है प्रतिपल चिंतामय 
कलयुग में कई क्षय
शेष मुट्ठीभर होंगे अभय 
यहीं आज का सत्य
कुछ न और असत्य 
कहीं अस्त या उदय
इतना से नहीं प्रणय 
न्याय मांग रहा किसलय
देरी से अन्याय क्रय 
श्रृंगार और मुस्कान विलय
झूठ का बढ़ा सामर्थ्य 
पर्दा में खेल विजय
हर तरफ शागिर्द संशय 
कहीं सिलसिलेवार है विक्रय
चंद हीं हैं सुखमय 
प‌रित्यक्त फूल है दुखमय
केवल है यही पराजय 
कहने को तो रामराज्य
जनमत बिखराव 
दानव साम्राज्य।