कविता तलाशती है रोटी कहीं हम और चलें पन्नों में शब्द संजोती दुनिया को न छले पाप का संसार धोती फिर भी कुछ अधजले अर्थ की कश्ती ढोती कर कुछ तो भले कुछ ख्वहिश भी खोती वक्त से कुछ ढले जैसे यामिनी है सोती प्रात में अंधेरा गले दर्पण से रूबरू होती कुछ विकृतियां टले बारिश की बूंदें मोटी चित ठंडा कर लें चांदनी की बोटी-बोटी कभी बादल के तले कभी आकृतियां उकेरी छोटी परछाई बनी यादें बदले हवा भी कहीं लोटी चल पड़े हम हौले-हौले तू प्रियतमा खेली गोटी निगाहें बहुत कुछ झेले पानी बहने को टोटी कोलाहल में कई अकेले गांधी युग की धोती कुर्ता संग लगाते मेले नमन करते हुए कोटि-कोटि खोटा मसीहा रहें अलबेले इश्कियां हैं नजारे पिरोती नफ़रत बरसाते गया हिचकोले।