हकीकत

पर्वतों के पत्थरों को तोड़ती नदी,
मिलन और वियोग में क्या गिनूंगा सदी ?
फलक से धरा तक कुछ लदी,
पुराने खतों में यादें हैं गढ़ी ।
भटकती परछाई है कुछ पढ़ी,
उतरकर बावली कहां तक चढ़ी ??
सुदूर चल पड़े हम कभी यदि,
रच दिया इतिहास में प्रेरित आजादी!
फिर भी अधजले शव की आबादी,
वेदना और जश्र भी है आधी।
दर्पण में पूर्ण हकीकत नहीं फरियादी,
अंधेरे में क्या अंदर की बरबादी ??
मछलियां चाहती रहीं सागर में समाधि,
किंतु प्यास में सुरंग सी व्याधि।
हवाओं से तय होती ये आंधी,
बादल, बिजली, तपिश में संधि ।
ऐंठन के पोखर में स्वभाविक मंदी ,
इश्क की आग है कैसे अंधी ?
गोया महंगी हो गई है शादी,
किताबी कहीं तो नहीं है खादी।
कोई कहता आदि और कोई अनादि
जाल में फंसे हमदम हैं आदी।
आग परखती न है शहजादी,
सरहद, बरगद, मांझी भी वादी।