अंधेरा विजय शंकर प्रसाद बकरीद हुआ है व्यतीत,पोखर अब बेखबर नहीं ।सड़क पर बकरियां सीमित,खामोशियों में गांव-शहर नहीं ।।टूटी पड़ी ज़िंदगी रीत,कोई यहां निडर नहीं ।निरीह पर कहर अतीत,उजालों में गुजर-बसर नहीं ।।अंधेरा से हुआ प्रीत,पुण्य का ज़िगर नहीं ।होली में वही गीत,रहम की खबर नहीं ।।पता नहीं यहां मीत,होता असमर्थ ज़हर नहीं ।सुख-दुख में रंग-रस फलित,शायद सही पत्थर नहीं ।।नेकी के रहबर अपरिचित,गुलामी का पहर नहीं ।मिट्टी से सब उदित,तू तो पेशेवर नहीं ।।आजादी शब्द है मर्यादित,देश से ऊपर नहीं ।न कर कभी कुंठित,ठहरे हम जानवर नहीं ।।तिरंगा है प्रिय सारगर्भित,कुछ तो अगर-मगर नहीं ।वीरता और ज्ञान पोषित,धरा है बंजर नहीं ।।