गलियाँ

फिर याद आ गई वो संकरी गलियां
जहाँ बचपन कभी दौड़ा करता था
नन्हे नन्हे पांव थे बड़ी लम्बी थी गलियां
खिल खिलाहट किलकारी गूंजती थी कभी
अब हम बड़े हो गये राह छोटी हो गई
खिलखिलाहट किलकारी कहीं खो ग्ई
हर तरफ बंद कपाट संनाटा सा छा गया
बचपन तंग गलियों में कहीं समा सा गया।