नसीब

क्या यही किसी के
नसीब में
होता है दोस्त।
जिस औलाद को कंधे पर
उठाया था कभी
पकड़ उगंली जिसे
चलना सिखाया था कभी
अपने तन पर नसीब ना थे
कपड़े जिसे कभी
काट कर अपना पेट,
भरा पेट बच्चों का कभी,
टूटी साइकिल मीलों दूर
घसीटा अपने को कभी,
कच्चे घर में रह तुझे
जमीं पर ना बिठाया कभी,
टपकती छत, मै खुद भीगा,
तुझे बचाया था कभी,
खुद ना पढ़ सका पाठशाला में
तुझे पढ़ाया था कभी,
माँ तेरी को खो कर बचपन में
ना बसाया घर कभी,
यही आस लिए बड़ा किया
अब तू ही मेरा सब अभी,
पर
ना कंधा नसीब हुआ
ना उठाया किसी अपने ने कभी ,
ना बुढ़ापे में हाथ पकड़
कुछ कदम चलाया कभी,
ना भर पेट खाना अपने हाथ से
खिलाया अब कभी ,
पक्के महलों में रह कर
नसीब में ना कोठरी है अभी ,
भीगता रहा सर्द रातो में
तन पर कपड़े नही है अभी
अच्छा हुआ ना देखी तेरी माँ ने
ये दुर्दशा है मेरी अभी,
जीते जी मर जाती बेचारी
ना जी पाती घुट के अभ ,
फिर सोचता हूँ
बहुत नसीब वाले
क्या होते हैं सभी ,
चल माफ किया मैंने
औलाद दिल का टुकड़ा है अभी ,
हर कोई ‘राजन’ नही होता
इस संसार में दोस्त
क्यायही किसी के नसीब मैं
होता है दोस्त।