कुछ दिन और रहने दो घर में

कुछ दिन और रहने दो घर में
हर बेटी फरियाद करती बाबुल से
कुछ दिन रहने दे बाबुल मुझे अपनों की छाँव में
क्यों मुझे बोझ समझे तू भी रहने दे आने गांव में
जिगर का टुकड़ा हूँ मैं तुम्हारा क्यों अलग करते हो
बचपन से पली तेरी गोंद में पराया फिर भी समझते हो।

बचपन से न खेली खिलौने चूल्हा चौका सम्हाल लिया
खेली भी तो गुड़िया पटोले वहां भी मुझको विदा किया
पापा की मै लाडली रही माँ ने भी मुझे सदा प्यार किया
भइया भइया कहकर मैंने, आगे भाई को सौ बार किया
अपनी इच्छा मारकर मैंने भाई को सब कुछ वार दिया।

कुछ न माँगा मैंने तुमसे, बोझ समझकर क्यों दुत्कार दिया
सारे काम करूंगी घर के, मैंने सब कुछ सहना सीख लिया
स्त्री हूँ मैं यही दोष शायद है मुझमे, फर्क करना सीख लिया
क्यों देते हो तुम अन्जान हाथों में पाली पोषी बेटी अपनी
दे दो कोई हर्ज नही पर समझे वो भी इसे बेटी अपनी।

जीवन की इस रीत से ना कोई अलग ना हो पायेगा कभी
लेकर आओगे बेटी किसी की तो लेकर जाएगा बेटी कभी।