बेटी एक स्त्री

माँ के पेट में बेटी थी
यह माँ को एहसास था
बेटी शांत शीतल थी
माँ को यह एहसास था।

कभी कोख में हलचल
न करती थी कभी
हिलती न कभी पेट में
लात न मारी कभी
कोने में दुबकी बेटी
बाहर की आहटें सुन रही थी
मार डालेगी ये बेरहम दुनिया
आहटें वो सुन रही थी
बेटों की चाह में मुझ जैसी
कली को क्यों रौंदते हो
मैं ना आई तो इस दुनिया में
तुम आओगे कैसे।

क्या नहीं देती मैं तुम्हे यहां
ये बतलाओ जब मैं आती हूँ
बेटी बन लाड, भार्या बन प्यार,
माँ बन ममता लुटाती हूँ
दिन कितने रखते हो घर
विदा करने की भी तो जल्दी है
फिर क्यों प्यार नही करते तुम,
क्या इसमें भी मेरी गलती है।

छोड़ देते हो इस बेरहम दुनियां की
घृणित नजरों में
हर आंख ताड़ती बेशर्मी से
जिस्म देखते गंदी नजरों से
कहीं जलाई जाती हूँ मैं
तो कोई बाजार छोड़ आता है
समझ खिलौना कोई रौंदता
कोई राह में छोड़ आता है।

पर अब नही, हां अब नही
दुर्गा बन मैं आ गई इस बेरहम दुनिया में,
अब तू डर मत माँ
हर दुष्ट की आत्मा कांप उठेगी
क्रोध मेरा देखेगी जब ये माँ
अब नही कोई बेटी बेटे से कम
इस दुनिया में, तू देखना माँ
चाँद तक हैं कदम मेरे
नही अब दुर्बल मैं, देखना माँ

अब शान और गर्व से
सर उठा जीना सीख लिया है मेरी माँ
हर कदम पर खुद के सहारे से
जीना सीख लिया है मेरी माँ।