दौर-ए-मोहब्बत

दौर-ए-मोहब्बत का आगाज है

कि हर कोई खुद को दीवाना समझता है।

निगाहों निगाहों ने मुलाक़ात क्या की

मोहब्बत मे खुद को जमाना समझता है।

 

तनहाई के ग़म सहना न चाहे

जुदाई की आग मे जलना न चाहे

जलने की चाहत बिना ही किए

क्यूँ खुद को शमा का परवाना समझता है।

 

ऐतबार नही जिनको अपने दिल पर

वो कैसे किसी का सहारा बनेगे

मजबूरियों के बहाने बनाकर

रुसवा मोहब्बत को करते रहेंगे

मोहब्बत नही नाम मजबूरियों का

मज़बूर क्यों फिर जमाना समझता है।

 

फिर मिले हो दिल के फ़साने मिलें है

कितनी यादों के मंजर सुहाने मिले हैं

उम्रभर जीने की हसरत नही है यहां

एक पल मे सदियो के तराने मिले हैं 

मोहब्बत की अजमत से आबाद होके भी

वो खुद को जहां मे बेगाना समझता है।