जब कभी खुशियों के बादल झूमकर बरसें नयन तरसे लबों पे जिक्र हो, आँखों में पानी हो। हम जिए तो भी मरें तो भी वतन के वास्ते क्यों न खिलती और महकती राजधानी हो।
टूटती सारी हदें हैं जल रही सब सरहदें हैं खौफ का मंजर दिलों में टूटे सारे वायदें हैं कल तिरंगे में लिपट आयें जो माँ की गोद में ना सियासत हो भरम हो और न कोई बेईमानी हो।
मानता हूँ कि दीवारों पर टिकी है घर की छत खिड़कियां हो, खिड़कियों पे हो वफ़ा की दस्तख़त तंगदिल न हो मोहब्बत न जफ़ा की चोट हो दे दीवारें हौसला जब मुश्किलों की धूप आनी हो।