फ़ासले देवेंद्र प्रताप वर्मा 'विनीत' पल नजदीकियों के बेखबर से हो गएफ़ासलें दरमियां के हमसफ़र से हो गए। आँखों ने कुछ कहा, कुछ कहा जुबां नेहम किसी खामोश बूढ़े शज़र से हो गए। वो शहर में रोज नई इमारतें बनाता रहागांव में माँ-बाप उसके खंडहर से हो गए।जब चले थे साथ लोगों का कारवां थादेखिये शिखर पर सब सिफ़र से हो गए।हर वक़्त दिलासों से काम चलता नहीअब लफ्ज़ चुभने लगे खंजर से हो गए। न फ़लक ने ली खबर न तुम आये इधरखेत उम्मीदों के सारे बंजर से हो गए।