तलबगार नही होता

चांद की चाहतों में जुगनुओं से प्यार नहीं होता
रूह से अब कोई किसी का तलबगार नहीं होता।

नुमाइश देख कर भी कुछ न कुछ ख़रीद लेते हैं
फक़त बाज़ार में हर शख्स ख़रीदार नहीं होता।

वफ़ा के मोती मिलते हैं बहुत गहराई में जा कर
किनारों पे जो मिल जाए वो वफ़ादार नहीं होता।

इस में जो भी रहा अदब और एहतराम से रहा
हमारे दिल के जैसा कोई भी दरबार नहीं होता।

उठाए नाज़ और पलकों पे बिठा कर रक्खे
मोहब्बत करने वाला हर कोई ‘शहरयार’ नहीं होता।