तलबगार नही होता मोहम्मद शहरयार चांद की चाहतों में जुगनुओं से प्यार नहीं होतारूह से अब कोई किसी का तलबगार नहीं होता।नुमाइश देख कर भी कुछ न कुछ ख़रीद लेते हैंफक़त बाज़ार में हर शख्स ख़रीदार नहीं होता।वफ़ा के मोती मिलते हैं बहुत गहराई में जा करकिनारों पे जो मिल जाए वो वफ़ादार नहीं होता।इस में जो भी रहा अदब और एहतराम से रहाहमारे दिल के जैसा कोई भी दरबार नहीं होता।उठाए नाज़ और पलकों पे बिठा कर रक्खेमोहब्बत करने वाला हर कोई ‘शहरयार’ नहीं होता।