कौन तुम मेरे हृदय में ?

कौन तुम मेरे हृदय में?
चुपके से आते हो !
इस निस्तब्ध निशा में
चंचल चित कर जाते हो!

मुझमें थी कसक समाई
तेरी छावों में आकर !
कितने निष्ठुर थे तुम
मेरी करुणा को पाकर !

मदिरा के प्याले को मैंने
धीरे से हाथ लगाया।
जीवंत हो उठी उसमे,
तेरी विशुद्ध माया।

मुझमें अज्ञान छिपा था,
तुझमें अपनापन ढूंढा!
तेरी कटुवाणी से,
उर वृन्द मेरा अति कूढ़ा।

संकेत दिया चितवन ने
अब बीत चली है रातें!
नींद नही आंखों में
मन करता अतीत से बातें।

अगणित श्वासों को मेरे
मिल जाता कूल किनारा!
विषमय विषाद जीवन का
फट जाता आँचल सारा।

विस्तृत हो मानस में मेरे
कैसे मैं तुझे भुलाऊँ?
ऐ क्षार सिंधु जीवन के!
कैसे तेरा पार मैं पाऊँ?

मेरी कंदर्प कथाएं
कहती हैं युग युग से!
वह रिक्त कर गया मुझको
ज्यों मानस मोती से!

दीपों की माला लेकर
जब थी दिवाली आई।
तेरी अतीत की प्रेरणा से
मुझको शून्यता भाई।

मेरे पागलपन ने,
शशि के दर्पण में देखा!
कल्पनाशील मन मुक्त,
भाव शून्य की रेखा!

तेरी प्रकाश की छाया,
मेरी चंचलता की रेखा।
किसने आहत तन में?
मेरी पीड़ा को देखा!

मैं मोम दीपबन जाऊं,
जलकर भी राह दिखाऊँ!
तेरी विस्मृति-स्मृति से,
भाव सिंधु तट पाऊँ।

मुझमें विरक्त माया है,
जो कल्पना शक्ति साया है।
जला जला कर जिसको,
बरबस करुणा पाया है।

है बहते दृग से निर्झर
कुछ याद तुझे भी आये।
इस असीम रजनी में
गाथा क्रंदन की भाये।

ऐ मलय समीर मनोहर,
मुझे दूर यहां से ले चल!
जहाँ शांत हो दिग-दिगंत
ठहरूं, सोचूँ,गाउँ कुछ पल!

इन अमराई डालों पर
छाई हैं कुछ वल्लरियाँ।
मेरे पागल प्राणों पर भी
गाती हैं कुछ परियाँ।

प्यासी है अलक हमारी,
दृग कैसे प्यास बुझाएं!
निशीथ नीरवता में तूने,
आ मुझको राह दिखाये।

विधु की सीमा में पहुंचा
जैसे अंतर्मन मेरा।
फिर हौले से आकर
प्राणों को किसने घेरा।

दिशाहीन नश्वर तन हूँ
जलता रहता हूँ निरंतर।
जाने कितना सुख का,
मेरे जीवन से अंतर?

पट खोल मुझे भी ले लो,
बाहों में अपने रजनी!
मोती की हाट लगाऊं
पहुंच जहाँ पर सजनी।

खो गया गगन मंडल में
प्राण अनल सा मेरा।
अवशेष बचा क्या मुझमें?
ऐ समीर अब तेरा।

फिर से लहराई आँचल
यौवन की परछाई ने!
बेसुध कर दिया मुझको
तेरी अंगड़ाई ने।

मन के दर्पण में मेरे,
वह अपना प्रतिबिम्ब निहारा!
यौवन प्रभात से अपने
अपने तट पर ही हारा।

अनुराग चिन्ह को मेरे,
फिर किसने रहा दिखाया!
अपना सर्वस्व लुटाकर,
बस हाला क्रंदन पाया।

मुझमें जब कसक समाई,
कमनीय कली मुरझाई।
मैंने तब अश्रुललित से
लिखडाली सब रुसवाई।

तुम कोसो दूर बसे हो-
पलक पुलिन पर मेरे
क्या तुझको भी यह-
विरह वेदना घेरे?

तेरी असीम छाया में,
कितने समासीन अम्लान?
फिर भी नित गाती है
मेरे कानों में कुछ गान!

मैंने प्रतिबिम्ब निहारा
भाव सिंधु में तेरे!
दे रही भंवर जिसमे थी
शत-शत अनंत के फेरे!

नीलाम्बर में तारे,
डूबे औ उतराए!
मन मसोस कर बैठा
पीड़ा का पंख पसारे।

अब मन कहता है सो जा
बहुत हो चली रातें!
क्या अंत कभी हो सकती?
है कवि की असीम बातें।