अंतर्द्वंद्व

कैसे चुप रहूं,
क्यों नहीं बोलूं ।
क्या यह समय है,
जो मैं गीत गुन गुनाऊं।
ॠतुराज वसंत का,
अभिनंदन गीत गाऊं ।
सौन्दर्य वर्णन करुँ,
चारो दिशाओं का ।
सुगन्धित हवाओं,
नदियों और धाराओं का ।
पीपल के छांव,
पगडंडी और गाँवों का ।
निर्झर झरनों का,
हिमाच्छादित हिमवान का ।
झूमती लताएं
या हरे खेत मैदान का।
नहीं बिल्कुल नहीं
कभी नहीं ।

जब भी देखता हूं,
आतंकी मंजर को,
भारतीयों के पीठ में,
घुसते हुए खंजर को ।
नशे की खेती को,
अफ़ीम की कलियों को,
दंगे में जलते शहर के,
धुएँ वाली गलियों को ।
पाक परस्त देशद्रोहियों,
के नफ़रत भरे नारों को,
संगीन अपराधों में लिप्त,
खुले फिरते हत्यारों को ।
सिसकते बचपन को,
स्वयं फांसी चढ़ाते किसानों को,
पत्थर खाती पुलिस,
गाली सुनते जवानों को ।
बूढ़े माँ-बाप के,
धक्के खाते किस्मत को,
स्वार्थी औलादों के,
स्वार्थ भरी खिदमत को
साधु संतों पर होते अत्याचार को,
धर्मनिरपेक्षता से
उठते विश्वास को,
मरणासन्न को प्राप्त
लोकतंत्र के टूटते सांस को ।

कब तक देखूं,
बोलो कैसे चुप रहूं?
क्यों नहीं बोलूं
कैसे सहूं?
क्या यह समय है,
जो मैं गीत गुन गुनाऊं?
ॠतुराज वसंत का
अभिनंदन गीत गाऊं ।

मैं लिख नहीं पाता हूँ
नायिका श्रृंगार को,
मधुर मिलन मधुमास को,
प्रियतम से मिलने को आतुर,
एक विरहन के आस को ।
फागुन के फाग और,
चैती के राग को,
बालम की दूरियों में,
दहकते दिल के आग को ।
कुर्ती कमीज़
और आँखों के काजल को,
नूपुर की गूंजन
और पैरों के पायल को ।
बिल्कुल भी नहीं
नहीं कभी नहीं ।
तन विद्रोही मन विद्रोही,
मैं विद्रोह की ज्वाला भड़काऊं ।
क्या यह समय है,
जो मैं गीत गुन गुनाऊं?
ॠतुराज वसंत का
अभिनंदन गीत गाऊं ।