निश्छल प्रेम

मैं तो निश्छल प्रेम भला हर ओर खींची चली आती हूँ।
कोई जो किंचित सा प्रेम करे मैं दुगुना प्यार लुटाती हूँ।

कट्टरता मन में पाले हुए रखे मानवता को दूर कर।
यह मानव क्यों रखता है खुद को इतना क्रूर कर।

लुटने की कला में यहाँ तो सब लोग ही लगते माहिर हैं।
यहाँ अपराधों के सब पितामह ये बात तो जग में जाहिर है।

लूटकर गैरों की खुशियाँ अपने लिए समेट लाऊँ।
वो विरह की दर्द में तड़पे और मैं दिवाली मनाऊँ।

त्याग दो उस प्रेम को तुम कतई ये कर स्वीकार नही।
तुम मानव हो करके भी कर मानवता का संहार नही।

सच्चे दिल को तड़पाना सरासर मानवता का उपहास है।
ऐसे लोग ही बन जाते आसानी से अपराधों के दास है।

जो धर्म-धर्म को बांट रहा वो तो धर्म व्यापारी है।
त्याग दो उस धर्म को जो मेरे मानवता पर भारी है।

त्यागों उस भगवान को जिसमें जनहित का सार नही है।
इस मानवता से बढ़कर जग में दूसरा कोई प्यार नही है।

कुछ सुधरने का भी अवसर दो एकाएक नही दो दण्ड कड़ी।
अपनी क्रूरता की अदालत से एक बार तो कर के देख बरी।

जो जलता पश्चाताप की आग में उसे क्षमा कर देना अपराध नही।
अपने क्षमाशीलता के इस गुण को तुम हठी विचारों पर साध नही।