बेटी

मैं चाहे जितनी भी बड़ी हूँ बेटी,
फिर भी पापाजी की परी हूँ बेटी।

पर हैं गर्व बेटे पर ही क्यों इतना,
मैं बुढापे की बेहतर छड़ी हूँ बेटी।

अगर पोर-पोर में बसते हैं बेटे,
मैं उनके हाथों की नड़ी हूँ बेटी।

हैं खुशियों के जो भी गुजरे पल,
मैं साथ आपके हर घड़ी हूँ बेटी।

अब जब बुढ़ापे से लगे गुजरने,
मैं भी हरदम साथ खड़ी हूँ बेटी।

जीवन के एक कड़ी बनते बेटे,
मैं बन गई दूसरी कड़ी हूँ बेटी।

बचपन के दिन या हो ससुराल,
हमेशा हक के लिए लड़ी हूँ बेटी।

कभी कुरूपता कभी दहेज दंश,
कभी मैं अजन्मी ही मरी हूँ बेटी।

ये प्रताड़ना तोड़ चुकी है इतनी,
फिर भी हौसले से भरी हूँ बेटी।

अंदर से भले मुरझाए हैं जीवन,
मैं ऊपर से बेहद हरी-हरी हूँ बेटी।

चाहे दूर जितनी भी रह लेती मैं,
फिर भी पापा की बड़ी हूँ चहेती।