उठ रे ! मानव

उठ रे ! मानव तू देख जरा
क्यूँ निंदिया में खोता है
सूरज भी अपने नियत समय पर
प्रकाशमय होता है
फिर क्यूँ तू ऐसे अंधियारे में जीवन खोता है।

बात करूँ गर अंधियारे की
वो भी एकांत प्रदान करे
गर कहूँ बात मैं चाँद की
वो भी शीतलता प्रदान करे।

नदियाँ भी कल कल करके
प्यास बुझाती सबकी
दिन रात धरा में बहकर
वो भी आगे है बढ़ती
पक्षी भी कलरव करके
मीठा संगीत सुनाते हैं।
बादल भी गरजकर गरजकर
के मीठा अमृत बरसाते हैं
फिर क्यूँ तू ऐसे अपशब्द कह
पाप का भागी होता है।।

उठ रे ! मानव तू देख जरा
क्यूँ निंदिया में खोता है।