दुख

दुख की नहीं कोई परिभाषा
वह है पत्तों की तरह !
आता है बसंत की तरह,
जाता है पतझड़ की तरह ॥

होता है यह धूप छाँव की तरह
अपनों के प्यार की तरह
कभी घटता कभी बढ़ता
राजाओं के राज की तरह ॥

वो कैसे सहते होंगे,
जो हैं निशब्द निष्प्राण की तरह
वो कैसे सहते होंगे
जो सहते हैं अंजान की तरह ॥

दुनिया में दुख से बचा नही कोई
यहाँ करे कोई और भरे कोई
यहाँ कोई दुखी है और दुनिया है सोई॥

दुख की नहीं कोई भाषा
यह है एक अमुक भाषा
बिना बोले सब समझे
इसकी यही है परिभाषा ॥