दुख ललित जैन दुख की नहीं कोई परिभाषावह है पत्तों की तरह !आता है बसंत की तरह,जाता है पतझड़ की तरह ॥होता है यह धूप छाँव की तरहअपनों के प्यार की तरहकभी घटता कभी बढ़ताराजाओं के राज की तरह ॥वो कैसे सहते होंगे,जो हैं निशब्द निष्प्राण की तरहवो कैसे सहते होंगेजो सहते हैं अंजान की तरह ॥दुनिया में दुख से बचा नही कोईयहाँ करे कोई और भरे कोईयहाँ कोई दुखी है और दुनिया है सोई॥दुख की नहीं कोई भाषायह है एक अमुक भाषाबिना बोले सब समझेइसकी यही है परिभाषा ॥