स्कूल वाला प्यार
स्कूल में उसे देखना अच्छा लगता था,
वो झूठ भी बोलती तो सच्चा लगता था।
हमें क्या पता,वो प्रेम था या आकर्षण ?
मन नहीं लगता था जब तक होता नहीं था दर्शन।
उस उम्र में कहाँ पता था प्रेम की परिभाषा,
किसी तरह दो बातें कर लूँ थी मन की अभिलाषा।
बीमार हो जाने पर भी स्कूल हमेशा आया मैं,
शत-प्रतिशत उपस्थिति का पुरस्कार भी पाया मैं।
उससे पीछे न रह जाऊँ इसलिए पढ़ता था मैं,
कक्षा में प्रथम आकर नये मुकाम गढ़ता था मैं।
प्यार का स्फुरण मन में ऊर्जा भर देता है,
जो लगता है कठिन,आदमी वो भी कर देता है।
माना की स्कूल का प्यार कच्चा होता है,
पर यही प्रेम सबसे सच्चा होता है।
प्रेम में केवल पीड़ा नहीं समर्पण भी है,
प्रेम अपने अंतर्मन का दर्पण भी है।
प्रेम तब तक प्रेरणायुक्त है,
जब तक वह वासना के केंचुल से मुक्त है।
मेरा तो इस विषय पर है यही विचार,
जीवन में यह अवसर आता है एक बार।
स्कूल का,कोचिंग का या कॉलेज का प्यार,
पढ़ते-पढ़ते होता है तो हो जाने दो यार।