इसलिए हर दिलों में

जब कभी दायरे से निकलना पडा़
साँप का ही खुला मुँह कुचलना पडा़।

सर से पानी गुजरने को जब-जब हुआ,
गहरे पानी से हो कर गुजरना पडा़।

हर घडे़ में भरे थे गले तक गरल,
इसलिए विष को अमृत समझना पडा़।

गैर से तो नही डर तो अपनों से है,
जिनकी खातिर स्व-पर खुद कतरना पडा़।

एक पल के लिए कोई अपना कहे,
साध मुग्धा लिए नित भटकना पडा़।

प्यार की कोई रेखा न थी हाथ में,
इसलिए हर दिलों में उतरना पडा़।

पोछने मेरे आँसू, “सरित” चल पडी़,
इसलिए बन के, “सागर” सवँरना पडा़॥