अपनत्व का सर्प

सितम हम न झेलें, सितम हम न ढाएँ।
चलो इक नयी राह, हिल-मिल हम बनाएँ।
बढा़ तम कि घातक, हुआ चाहता है,
चतुर्दिक अँधेरा, घिरा चाहता है,
चलो प्रेम का दीप, ले कर चले हम,
सहज सत्य की, नेक बाती हम जलाएँ।।
सितम हम न झेलें, सितम हम न ढाएँ।
चलो इक नयी राह,हिल-मिल हम बनाएँ॥

अजी सर उठा नित, फिरे स्वार्थ जग में,
कि अपनत्व का सर्प, बैठा है मग में,
कहीं, छीना-झपटी, हरण हो रहा है,
कि सुरसा बनी नित, खडी़ हैं ब्यथाएँ।।
सितम हम न झेलें, सितम हम न ढाएँ।
चलो इक नयी राह,हिल-मिल हम बनाएँ॥

पडा़ कोई है शर्बते-जा़म पी कर,
कि है कोई लेटा, अधर अपने सी कर,
कहीं चल रही है, सुरा दौरे-महफिल,
जु़बाँ बहकी-बहकी, कदम लड़खडा़एँ।।
सितम हम न झेलें, सितम हम न ढाएँ।
चलो इक नयी राह,हिल-मिल हम बनाएँ॥

न पूछो कि दुनिया,किधर जा रही है,
महज स्वार्थ-सरि में, बही जा रही है ,
जिन्हें रास्ते का, पता तक न “मोही”,
हमें मंजिलों का पता, वो हम बताएँ॥
सितम हम न झेलें, सितम हम न ढाएँ।
चलो इक नयी राह,हिल-मिल हम बनाएँ॥