इतना प्यार कहाँ से लाऊँ
अपना दर्द न मैं कह पाऊँ,
फिर भी गीत मीत हित गाऊँ,
लाख चाह कर मीत हृदय की,
पीर न पल भर बहला पाऊँ।
इतना प्यार कहाँ से लाऊँ ??
बेहद प्रबल पीर बरसाती,
हर पाती आती अकुलाती,
उद्वेलित करती हिय करुणा,
आँखों का सागर उमडा़ती ,
पल में पीर हृदय की हर लूँ,
पल ही भर में हृदय रिझाऊँ।
इतना प्यार कहाँ से लाऊँ??
मृदुल सुखों का कोई सोता,
काश ! हमारे बश में होता,
दोनों हाथ उलीचा करता,
यदि मैं सुख का सागर होता,
सुख का पारावार सहज प्रिय-
आँचल में लुढ़काता जाऊँ।
इतना प्यार कहाँ से लाऊँ??
फिर भी गीत रचा करता हूँ
प्रीति प्रतीति दिया करता हूँ।
अनुभव के सारे सुख सपने,
प्रिਧ हित रोज बुना करता हूँ।
स्नेहिल गीत पुनीत सुना कर,
प्रीति-प्रतीति प्रबल दे आऊँ।
इतना प्यार कहाँ से लाऊँ ??
मौसम के अनुकूल बनूँ मैं,
फिर तितली या फूल बनूँ मैं,
सुख का हर लमहा प्रिय के हित,
प्रति पीडा़-प्रतिकूल बनूँ मैं,
आकुल मीत मान खातिर,
निशि-दिन गीत मिलन के गाऊँ!
इतना प्यार कहाँ से लाऊँ ??
ताने-मेहने, करुणा-कारण,
शिकवा-गिला, सिला दे गर तो,
हर पल, माह वसंती कर दूँ,
सारा गरल पिला दे गर तो,
मधुर अमिय सा, गरल निगल कर,
नील कंठ मैं खुद बन जाऊँ।
इतना प्यार कहाँ से लाऊँ ??
इस जग में कुछ भी ना अपना,
हाथ लगे बस टूटा सपना,
वर्ना तो मरु सा यह जीवन,
सारा ही जीवन है तपना,
अतः जोड़ टूटा हिय-दर्पण,
“सागर” प्रीति, सतत बरसाऊँ??
इतना प्यार कहाँ से लाऊँ ??