अपने ही आँगन में

हस्ती वाचाल बहुत, और गाँव बहरा है।
अपने ही आँगन में, धूप-छाँव ठहरा है॥

प्रतिबंध की छुरी पर, अनुबंध का गला है,
सौगंध की विना पर, सम्बंध ने छला है,
शूलों की गरदन में, गंधित हर गजरा है।
अपने ही आँगन में, धूप-छाँव ठहरा है॥

अधिकारों पर होते, तीखे संवाद मगर,
उजडे़ घर कब होंगे, उत्तर आबाद नगर,
सूरज औ’ रजनी में, भेद-भाव गहरा है।
अपने ही आँगन में, धूप-छाँव ठहरा है॥

रतनारी आँखों में, सपनीली नींद लिए,
कर तल में अपने, हर आकुल उम्मीद लिए,
कैसे उड़ पाएगा, पंछी, पर कतरा है।
अपने ही आँगन में, धूप-छाँव ठहरा है॥

अपने संकल्पों की, आरती सजाऊँगा,
खुशियों से घर, आँगन, देहरी, भर जाऊँगा,
“मोही” हर साधों पर, सर्पों का पहरा है।
अपने ही आँगन में, धूप-छाँव ठहरा है॥