उम्र भर नीर दृग के छुपाता रहा
नेह पूरित दिया, तुमने क्या छू दिया,
उम्र भर यह दिया, जगमगाता रहा ॥१॥
नील नभ के तले, जब कि हम-तुम मिले,
आसमाँ हँस पडा़, मुस्कराई जमीं,
वह अमर याद है, एक बुनियाद है,
जब अधर ने अधर की, चुरायी नमी,
बात की बात में, चाँदनी रात में,
वक्त पागल हमें, गुदगुदाता रहा ॥२॥
एक अंकुर उगा, था हृदय में पला,
प्रीति की छाँव पा, वर्फ़ सा मैं गला,
देख कर बेरुखी, बेशरम वायु की,
अश्रु की ओट में, सुख कहीं छुप चला,
इस तरह दो दिए, नित जले-नित बुझे,
दर्द भीतर कहीं कुलबुलाता रहा ॥३॥
पीर हिय की तड़प कर, मचलने लगी,
थिर नही रह सकी, प्रीति की मधुकरी,
घाव सीना पडा़, अश्रु पीना पडा़,
मुहँ चिढा़ने लगी, हर डगर-देहरी,
दर्द पी कर जिया, होंठ सी कर जिया,
बस न कोई चला, छट-पटाता रहा ॥४॥
दिल्लगी में भी दिल से न दिल जोड़ना,
चाह कर फिर किसी का, न दिल तोड़ना,
यदि समस्या, तो प्रिय! है समाधान भी,
रूठ कर भी, किसी से, न मुहँ मोड़ना,
“मोही” कहते बने, कुछ न सुनते बने,
उम्र भर नीर दृग के, छुपाता रहा ॥५॥