मुहब्बत की गलियों में

मेरी दास्ताने-कहानी न पूछो,
जवानी अजब थी दीवानी न पूछो।
कहीं शूल थे तो, कहीं ठोकरें थी,
मगर मेरी अल्हड़, जवानी न पूछो॥

बहुत दूर थी, राह औ’ रोशनी भी,
लगी सारी दुनिया, बेगानी न पूछो।
महज पीर सहमी सी आगोश में थी,
ब्यथा किससे कहता, जु़बानी न पूछो॥

मगर हौसला मेरा, अम्बर को छूता,
नयन में लिए खारा, पानी न पूछो।
मुहब्बत की गलियों का, सरताज “सागर”,
बुझाता बढा़ आग, पानी न पूछो॥