शब्द

बच्चों की तरह
नासमझ और मासूम
होते हैं
जिन्हें भावों में
पिरोना पड़ता है
आहसासों में
संजोना पड़ता है
एक अक्षर
के हर-फेर से
पूरी रचना को आँख
भिगोना पड़ता है।

जैसी कल्पना मिलती है
शब्द, बच्चे की भाँति
वैसा रूप ले लेता है
जैसी भावना खिलती है
वैसा धूप ले लेता है।
शब्द और बच्चे
एक से ही हैं
श्रेष्ठ कृति के लिए
दोनों को
पालना पड़ता है
समय निकाल के
संभालना पड़ता है
तब जाके
एक अदद इंसान
की तरह
एक मुकम्मल
रचना तैयार होती है।