कविता

तुमको पता है?
शायद पता नहीं होगा,
कविता लिखी नहीं जा सकती,
अगर आप उसको जी नहीं सकते,
तो आप लिख भी नहीं सकते,
लिखने के लिए डूबना पड़ता है,
लोग कहते हैं
लफ़्ज़ों के समुन्दर में,
दरिया में,
मगर,
भावनाओं का क्या,
उसे तो बिना जिए
महसूस नहीं किया जा सकता,
जैसे कोई मर्द लिखना भी चाहे कविता,
एक लड़की के माँ बनने की,
कैसे बयाँ कर सकता है वो उस खुशनुमा,
मखमली, मुस्कान को समेटे हुए दर्द को,
जो सिर्फ उसने महसूस किया है,
हंसी आएगी उसे जब वो गुजरेगी,
उस कविता के हर लफ्ज़ से,
उसको लगने लगेगा,
कि कितना झूठ लिखा जा चूका है अब तक,
कितनी भावनाएं बिना जिए उकेर दी गयी हैं
सफ्हों पर, लोग पढ़ते हैं,
और समा जाना चाहते हैं
उस मकड़जाल में,
बिना सोचे बिना समझे,
बिना जाने, पहचाने,
इस मरीचिका रूपी सच को
समझने के लिए भी जाना पड़ेगा
आपको उस तक,
जीना पड़ेगा उसकी रूह के साथ,
बिताना पड़ेगा अपना हर पल
उसके जैसा,
आप नहीं लिख सकते
बंद दीवारों के अंदर क्या हुआ था,
आप नहीं लिख सकते कि उसने क्या सोचा था,
आप नहीं लिख सकते
कि किन शर्तों पे बिछाया गया था बदन,
आप नहीं लिख सकते हर एक उस बात को,
जिसके आस पास भी नहीं गए हो तुम,
इसलिए कहता हूँ,
अभी नए हो तुम,
भावनाओं को लिखने के लिए
लफ्ज़ का प्रयोग और लफ्ज़ को बयाँ करने में
भावनाओं का प्रयोग,
एक बड़ा अंतर है दोनों में,
समझना होगा इसे,
लिखने वाले को भी,
पढ़ने वाले को भी ।