हाँ तो मैं कुछ कह रहा था

लिखा किसी ने दर्द
किसी कागज के टुकड़े पर
और किसी ने पढ़ा
ले गया कोई उसको अपने घर
पड़ा रहा घर में अनजान
घर भी था सुनसान
फिर एक किसी बच्चे ने उसको देकर आकार दिए पर
और निकल पड़ा हुआ अपने एक अनजान सफर पर
गिरा कहीं जाके वो किसी के कदमों के ऊपर
उसने उठाया
दिए आकार को मिटा दिया उसे खोलकर
कुछ पढ़ने लगा उसमें वह पकड़ कर अपना सर
फिर हंसा, मन ही मन बोला,
जाने क्या लिखा है
पर जो भी लिखा है, है सब सही, बहुत सुंदर
फिर उसने रखा उस पर एक समोसा और डाली चटनी
खाया और हाथ की उंगलियों को पोंछता हुआ
कागज फेंकता हुआ बोला, बहुत बढ़िया, बहुत सुंदर।

क्या वो जगह थी सही कागज के लिए
या जाएगा वह अभी और ऊपर
लिखते लिखते सोचता रहा मैं क्या लिख रहा हूँ
कोई कविता
या उतार रहा हूँ
जिंदगी के कुछ राज
डोलती हुई नाव जिसमें जिंदगी सवार है
है बस नाम ही ना कोई पतवार है
चलती है तैरती हुई बस उधर
जिधर पानी की धार है
कभी डूब जाती लहरों के बीच
फिर से लड़ती उन्हीं लहरों से
करती जद्दोजहद जीने की
अचानक से थम गया तूफान
बंद हो गया लहरों का शोर
थम गया पानी का बहाव
ना रही कोई धार
और है नहीं कोई पतवार
अब कर रहा इंतजार
तूफान के आने का
लहर के आने का
उसी तूफान का जिससे अभी जूझ रहा था
उसी लहर का जिससे अभी डर रहा था ।
हाँ तो मैं कुछ कह रहा था ।
मैं क्या कह रहा था ??