इश्क़
जब से वो है
तब से मैं हूँ
हम दोनों से बातें करता
हम दोनों का प्यारा “इश्क़”।
उसका दिल और साँसें मेरी
उसकी आँखे पलकें मेरी
उसकी आँखों के सपनों मैं
आता जाता मेरा “इश्क़”।
जब से आँखें चार हुई है
दहलीजें सब पार हुई है
लम्बा रस्ता तय कर करके
थक थक जाता मेरा “इश्क़”।
बात कहीं जब उसकी होती
साँसे मेरी धीमी होती
अपने कान लगाकर सुनता
सारी बातें मेरा “इश्क़”।
उसका दिन है उसकी रातें
उसकी ही ये जिंदगानी
उसकी सांसो को अपनाता
धीरे धीरे मेरा “इश्क़”।
दूर कहीं गर वो हो जाये
मेरा साया सा खो जाये
रात चांदनी पूनम जैसी
उसको ढूंढ़े मेरा ”इश्क़”।
खँडहर हो गए महल अटारी
आँखें रेगिस्तान हुई
बंजर दिल की सूखी तह पर
फसल उगाता मेरा ”इश्क़”।
उसका मिलना रब का मिलना
बंजर में फूलों का खिलना
मिलके उससे दिल की बातें
सब कह जाता मेरा “इश्क़”।
उसकी होती बंद जब “पलक”
तितली सी मासूम दिखे
आँखों को आँखों की भाषा
फिर समझाता मेरा “इश्क़”।
गिरे जुल्फ़ जब जब गालों पर
घिरकर बादल आते है।
गीली पलकें गर हो जाएँ
मेघ सा बरसे मेरा “इश्क”।
ख़ुद को ख़ुदा से जुदा बताता
उसकी ओर खिंचा सा जाता
इक अनदेखी डोर से जाने
क्यूँ बंध जाता मेरा “इश्क़”।
ख़ुदा बने ख़ुद अपने दिल का
दिल इसकी इक न माने
महबूबा हो आगे आगे
पीछे जाता मेरा “इश्क़”।
इश्क़ हँसे तो हँसता इश्क़
गर रोये तो रोता इश्क़
अपने प्यार के रंग में रंगकर
हँसता रोता मेरा “इश्क़”।
सावन के झूलों में बसता
मेघों के संग खूब बरसता
बारिश की बूंदों सा रिमझिम
झरता जाता मेरा “इश्क़”।
मेरे दिल में उसकी खातिर
कितने दीपक जलते हैं।
काली स्याह अमावस वाली
रातों का सा मेरा “इश्क़”।
सारे जग में करें सवेरा
ख़ुद रहता अँधियारे में
ख़ुद का साया बने अंधेरा
दीपक का सा जलता “इश्क़”।
लाख समंदर की गहराई
मापी अब तक ज्ञान से
मगर आज तक माप ना पाए
जाने कितना गहरा “इश्क़”।
मिल जाए जो इश्क किसी को
फ़िर कोई परवाह कहाँ
सारी दुनिया एक तरफ़ हो
एक तरफ़ हो मेरा “इश्क़”।
अपनी मंज़िल ढूँढ़ ही लेगा
इसको रोक सका है कौन
बस थोड़ा सा ज़िद्दी होके
घर से बाहर आए “इश्क़”।
दिल की हर आवाज़ सुने ये
एक सुने ना दुनिया की
अपनी धुन में रमता जाता
रमता जोगी मेरा “इश्क़”।
चाहे रस्ता कैसा भी हो
मंज़िल कितनी दूर हो
यादों का इक लिए कारवाँ
आगे बढ़ता जाता “इश्क़”।
किसको कितना समझ में आया
ये कोई भी समझ ना पाया
सबकी सोच से आगे आगे,
जाए सोचता मेरा “इश्क़”।
बाँध सका ना कोई अब तक
सरहद इसको भायी ना
उड़ता सारे आसमान में
पंछी बनकर मेरा “इश्क़”।
नहीं हुकूमत चलती इस पर
हुकुम चले तो बस दिल का
दिल की हर धड़कन को समझता
जाने क्या कर जाए “इश्क़”।
चाहे मेघ हो सावन वाले
चाहे रात हो भादों की
करता कब परवाह किसी की
कितना लापरवाह है “इश्क़”।
सारी दुनिया करें बगावत
सीना ताने खड़ा रहे
सहता जुल्म ज़माने भर के
फिर बागी हो जाए “इश्क़”।
इक पत्थर की सी मूरत से
लाख दुआएँ करता है
कहता है बस रहे सलामत
इस दुनिया में मेरा “इश्क़”।
प्यार इबादत प्यार दुआ है
प्यार को ख़ुदा बनाया है
प्यार का मंदिर एक बनाकर
पूजा करता मेरा “इश्क़”।
पकड़े हाथ में हाथ प्यार का
डाले बाँहों में बाहें
बंजारा सा घूमे पागल
कितना न्यारा मेरा “इश्क़”।
उनसे नज़रें जब मिलती हैं
सारी कलियां गुल बनती है
अपने दिल के ही उपवन से
कलियां चुनता मेरा “इश्क़”।
जुल्फे उसकी रुख तक आयें
उसके रूखसारों पर छायें
काली जुल्फे गोरे गाल
तकता जाता मेरा “इश्क़”।
उसकी याद का एक सहारा
बस इस दिल को मिल जाए
तिनका तिनका ज़र्रा ज़र्रा
जोड़ के मंज़िल पाए “इश्क़”।
तूफ़ानों में इश्क की किश्ती
लाखों लहर ज़माने की
यादों की पतवार थाम के
साहिल पे आ जाए “इश्क़”।
साहिल भी गर करे बगावत
कोशिश करे डुबाने की
किश्ती की फिर डोर थाम के
साहिल से लड़ जाए “इश्क़”।
लाख ताज बनवाए किसी ने
अपने इश्क की याद में
मगर मुफ़लिसी में जीकर भी
परवाना बन जाए “इश्क़”।
आंखें नम ना रहे सनम की
दिल में कोई गम ना हो
अपने इश्क की बदनामी से
बस डर जाता मेरा “इश्क़”।
ख़ुद का पता भी भूल के बैठा
खबर रखे बस इश्क की
उसकी हर एक बात जानने
को उत्सुक सा मेरा “इश्क़”।
इक दिन गर दीदार जो हो ना
वो दिन सदियों सा गुज़रे
उसके ही दीदार की खातिर
बंजारा बन जाता “इश्क़”।
बंजारा बन के गलियों में
अपने गम को बेंच रहा
चेहरा गर दिख जाए सनम का
खुश हो जाए मेरा “इश्क़”।
उनको बस एहसास भी हो ना
उनकी खातिर घूम रहा
पट जब खोले बाहर झाँके
इक टक ताके उनको “इश्क़”।
कौन खरीदे गम इस दिल के
और ग्मों को बेंचें कौन
नैना से नैना मिल जाए
फिर घर जाए मेरा “इश्क़”।
घर जाके बस याद सनम की
दिल को मेरे बहुत सताए
कल फिर होगा दीदार सनम का
आँखों को समझाए “इश्क़”।
उधर सनम तो बेपरवाह है
नादानी से लापरवाह है
पता नहीं क्या सोच रहा हो
कैसे जाने मेरा “इश्क़”।
लेकिन तुझ बिन आंखें हों नम
बिन तेरे ना निकले ये दम
संग में तेरे जीना चाहे
अपने सारे लम्हें “इश्क़”।
पल पल गुज़रे इक दिन जैसा
दिन में सदियाँ कई गुज़रती
गुज़रे कुछ लम्हें जो संग में
युग कितने जी जाए “इश्क़”।
चली बसंती पवन सुहानी
फिर आई इक याद पुरानी
धूप सुनहली पूस के जैसी
तन गरमाए मेरा “इश्क़”।
गीत सुने कुछ राग सुनाए
मन ही मन अपने बतियाए
फाल्गुन में होली भी खेले
फाग सुनाए मेरा “इश्क़”।
भूल ना पाए कभी सनम को
और बताए कुछ भी ना
रोज़ रोज़ कुछ नयी कहानी
गढ़ता जाता मेरा “इश्क़”।
करता छुपकर बातें उससे
जीता पल में सालों को
दुनिया भर की ही नज़रों से
उसे बचाता मेरा “इश्क़”।
लम्हें बीते बीते महीने
बीती मेरी जिंदगानी
मगर आज भी पहले ख़त सा
सौंधा सा महकाता “इश्क़”।