जिगर के ख़ून से लिखना वही तहरीर बनती है निज़ाम फतेहपुरी जिगर के ख़ून से लिखना वही तहरीर बनती है।इन्हीं कागज़ के टुकड़ों पर नई तक़दीर बनती है।।ग़ज़ल इतनी कही फिर भी न समझा मैं भी हूँ शायर।मेरी भी ज़िंदगी गुमनाम इक तस्वीर बनती है।।किसी का जीते जी दीवान मरने पर छपा कुछ का।कहीं पे ज़ौक़ है किस्मत कहीं ये मीर बनती है।।तुम्हारी सोच कैसे इतनी छोटी हो गई यारो।हमारे नर्म लहजे से भी तुमको पीर बनती है।।‘निज़ाम’ अपनी क़लम रखकर दुबारा क्यों उठाई फिर। बुढ़ापे में बता राजू कहीं जागीर बनती है।।