हार बैठा है महल इक झोपड़ी के सामने सुखवीर चौधरी 'शिखर' हार बैठा है महल इक झोपड़ी के सामने,दुश्मनी का दम घुटा है दोस्ती के सामने।बन के अफ़सर आ गया है वो तुम्हारे शहर में,कल जिसे ठुकरा दिया था नौकरी के सामने।भूख मजबूरी ग़रीबी छीनती हैं जब सुकूँ,ख़ुदकुशी भारी पड़ी है ज़िन्दगी के सामने।चाँद तारे हीरे मोती कपड़े ज़ेवर कुछ नहीं,ये सभी फ़ीके हैं तेरी सादगी के सामने।दिल किसी भी काम में अब तो मेरा लगता नहीं,कुछ नहीं भाता हमें अब शायरी के सामने।चीन पाकिस्तान अमरीका वगैरह कुछ नहीं,कौन टिक सकता है अब माँ भारती के सामने।लाख मुश्किल हों ‘शिखर’ तुम हौंसला मत हारना,तीरगी की क्या चलेगी रोशनी के सामने।