केवल "माँ" मैं हो सकती है

नौ माह गर्भ मैं रख हमको कितने कष्टों को सहती है,
लेकिन है ममता का सागर सब कुछ हंस-हंस के सहती है ।
प्रसव के दौरान “मात” कितनी पीड़ा को सहती है,
अपने जीवन का लगा दांव जो शिशु जन्म दे सकती है ।
इतनी निश्छल ममता केवल,
केवल “माँ” मैं हो सकती है ।
रातों को जाग-जाग अक्सर
“माँ” ही लोरी गा सकती है,
हमको सूखा बिस्तर दे कर खुद गीले मैं सो सकती है ।
हमको सारा भोजन देकर खुद भूखी भी रह सकती है ,
नन्हे शिशु की ठोकर खा कर जो उसे दूध दे सकती है ।
इतनी निश्छल ममता केवल,
केवल “माँ” मैं हो सकती है ।
बाबा की गाली बच्चों की गलती पर जो सुन सकती है,
आँखों मैं अश्क छुपा कर
जो हँस कर के रह सकती है ।
औरत होकर जो मर्दों के सम्पूर्ण सितम सह सकती है ,
मन के घन घोर अंधेरे मैं जो सूरज भी बन सकती है ।
इतनी निश्छल ममता केवल,
केवल “माँ ” मैं हो सकती है ।
अपने बच्चों की खातिर जो सारे दुख भी सह सकती है ,
औलाद को देख परेशां जो
अपने जेवर दे सकती है ।
अपनी सन्तति की खातिर जो
अपना सब कुछ दे सकती है ,
अंधकार से लड़ने के जो
सभी जतन दे सकती है ।
इतनी निश्छल ममता केवल,
केवल “माँ” मैं हो सकती है ।
आँधी और तूफान मैं जो तनकर के खड़ी रह सकती है,
अपनी औलाद के भले हेतु हर ज़िद पे अड़ी रह सकती है
हर हाल मैं अपने बच्चों को जो सिर्फ दुआ दे सकती है ,
“माँ” की उपमा केवल “माँ” है कोई और नहीं हो सकती है।
इतनी निश्छल ममता केवल,
केवल” माँ “मैं हो सकती है ।
जो औलादें बूढ़ी “माँ ” को खुशहाल नही रख सकती है,
उनके सपने,अरमानों की परवाह नही कर सकती है ।
जो औलादें अपनी “माँ” का सम्मान नहीं कर सकती है ,
उनकी सन्तति भी उनके संग कुछ ऐसा ही कर सकती है ।
इतनी निश्छल ममता केवल,
केवल “माँ “मैं हो सकती है ।
जो बहुएँ अपनी सासु माँ की सेवा नही कर सकती है ,
जो “माँ” होकर के बेटों को माता से अलग कर सकती है।
जो सासु माँ की निज माता सी कद्र नहीं कर सकती है ,
अम्मा के लिए अपनी सन्तति मैं प्यार नहीं भर सकती है ।
जो औरत होकर औरत का सम्मान नहीं कर सकती है ,
वो कुछ भी बन जाए लेकिन सच्ची माँ नहीं बन सकती है ।
इतनी निश्छल ममता केवल,
केवल “माँ ” मैं हो सकती है ।