कल उसकी थी आज मेरी बारी है
जो कम हँसते थे कम बोलते थे
नही रोते थे चैन की नींद सोते थे
उनकी गले पर धार लगा-लगा कर
उनके सुखों को तिल-तिल जला-जला कर
कहा जाता रहा कि वो हंसा करें
दूसरों के सुकूँ को व्यंगों से कसा करें
उनको सताया जाता रहा कि बोलो
मुँह खोलो
तुम भी हम से बनो
अलग क्यों खड़े हो
हमारी मिट्टी में मिलो-सनो
वे उसे घसीट लेते हैं अपने संग
फिर
उसे दिखता है दुनिया का असली रंग
मदारी डमरू बजाये है
उसने खेल नये-नये सजायें हैं
आते रहते हैं खेल में घसीटते हुये लोग
मिलते हैं उन्हें दर्द, हर तरह के सोग
कोई अट्टहास साज रहा है
कोई पाँव में घुँघरू बांध रहा है
वो चकर पकर सब देख रहा है
समझ नही रहा
पर मदारी संग खेल रहा है
हर ताल पर टिरगिट बाज रहा है
अब वह भी व्यंग को साज़ रहा है
कहकहा सबमें बाँट रहा है
सच झूठ भी छांट रहा है
आनंद आया आनंद आया
प्रपंच छाया प्रपंच छाया
खेल हुआ भीड़ लगी
बहुतों को खेल में पीड़ लगी
कुछ को स्मृति गमगीन लगी
कुछ की स्मृति दीनहीन लगी
वो समझा सब कुछ शनै शनै
बिगड़ा था सब कुछ बिना बने
अब फिर वे उसको घेरे है
कहते हैं तेरे सारे ग़म मेरे हैं
वो क्या है जो मन को दरक रहा
वो क्या है जो गले मे अटक रहा
वो सम्भलता है थूक निगलता है
कुछ कहने की जद् में कुछ ना कहता है
नज़रें फँस जाती हैं क्षितिज में कहीं
कुछ कहती हुई कुछ अनकही
दूर कोई जाते दिखता है
पर कभी नही पलटता है
वो छाया है या परछाई है
अपनी है या पराई है
गले मिलने जो आयी है
दर्द झोली भर कर लायी है
द्वन्द्व है, खेल अब भी जारी है
कल उसकी थी आज मेरी बारी है।