कटी पतंग
एक दिन देखा एक पतंग को मैंने
उड़ते हुये आसमान की गहराइयों में
एकटक उसी को निहार रही थी मैं
तभी उसे काट दिया किसी ने
डोलते-डोलते आ कर गिरी मेरे ही समक्ष
हो गयी मैं व्यथित उसकी यह अंगड़ाई देख कर
उसी पतंग जैसी अपनी ज़िंदगी भी है शायद
जब तक उड़े ऊंचाइयों में तब तक सारा आसमान अपना है
जैसे ही कटती है डोर, लगता सब कुछ सपना है
जैसे किसी ने ताली पीट कर गहरी सोच से जगाया हो
या फिर किसी ने धक्का दे गहरी नींद से उठाया हो
ज़िन्दगी भी कुछ यूँ ही लड़खड़ाकर गिरती है
जिस वेग से उड़ती है, उसी वेग से नीचे गिरती है
उड़ते वक़्त जो डोर कसते हैं
कट जाने पर सबसे पहले वह ही डोर खींचते हैं
उस पतंग से सीखा मैंने
जब तक जियो वैसे ही जियो
जैसे क्षण भर पहले पतंग जी रही थी
क्योंकि ज़िन्दगी की बागडोर नहीं है अपने हाथों में
ना जाने यह कब कट जाये, काली घनेरी रातों में
जैसे पतंग को उसी की डोर देती दगा है
वैसे ही जीवन में हम सबको सबसे पहले अपनों ने ही छला है।