अहम के अर्धसत्य

जो कोई कहे मैं निर्माता हूँ

नीति की बात हो तो वह सिर्फ विधाता है
सृष्टि और उसके नियम वही बनाता है
इस धरा पर तो मजदूर असली निर्माता है।
सड़कें बिछा अट्टालिकाएं उठाता है
जीवनोपयोगी सब काररखानों में बनाता है
खेत खलिहान कारखानों से सब तक पहुंचाता है
क्या कोई उसके खून-पसीने का मूल्य दे पाता है
फिर कैसे कोई कह सकता कि वो निर्माता है ?

जो कोई कहे मैं अन्नदाता हूँ

अन्नदाता तो सिर्फ किसान है
निश्छल मन कठोर श्रम जिसकी पहचान है
संतान के जैसे फसल को पालता है
वही तो सबके पेट में अन्न डालता है
तेज धूप बरसते मेघ कड़क सर्दी को सहता है
धान उगाता है खेत में फिर भी भूखा रहता है
क्या उसके स्नेह श्रम का मूल्य चुका पाओगे
फिर भला कैसे अन्नदाता कहलाओगे ?

जो कोई कहे मैं दानी हूँ

माना कि कई जगह प्याऊ लगवाई है
कहीं सराय कहीं शालाएं खुलवाई है
पर जलराशि तो धरा से ही पाई है
उसी पर उसी के पदार्थ से कुटियाएं बनवाई है
महादानी धरा से ही तो सारी संपदा पाई है
फिर दानी कहलाने की बात कहां से आई है ?

जो कोई कहे मैं ज्ञानी हूँ

ग्रह नक्षत्रों की गणना कर लेते हो श्रीमान
पर क्या वो सितारे हैं इस समय भी विद्यमान
अनंत ब्रह्माण्ड अपरिमित अंतरिक्ष का वितान
कुछ भूत कुछ भविष्य और कुछ है वर्तमान
हर काल क्षेत्र का होता है अपना अपना विज्ञान
कभी जो कार्य दुष्कर था कभी हो जाता आसान
स्वयं अपने बारे में ही ठीक से जान न पाए
तो फिर कहिए कि कैसे ज्ञानी कहलाए ?