रे सुन ! मानव संत्रस्त

क्यों कर बना लिये है तुमने,
महाविनाश के शस्त्र।
और आदिम होते जा रहे,
नित उतार कर वस्त्र।।

छोटी सी दुनिया के मालिक,
किस बात का है अभिमान।
उसके समकक्ष हो न सकोगे,
जिसने सृष्टि रची सहस्त्र ।।

लोभ लालसा की जिव्हाएं,
विष को उगले रोज।
अतृप्त कामना व्याकुल करती,
रहते हरदम त्रस्त।।

ताल तलैया नदिया मैली,
वायु भी हुई विषैली।
नैसर्गिक धारा बाधित है,
बहती जो अमर अजस्त्र।।

अपनी ही संतानों को तुम,
दे कर क्या जाओगे।
सोच विचारों का कोष कलुष,
या देह ज़रा से ग्रस्त।।

प्रकृति के अनुसार हो जीवन,
आधि व्याधि से मुक्त।
संरक्षित हो भूमि जल वायु,
विचरें हो कर मस्त।।