पर्यावरण

भीषण अग्नि धधक रही, गर्भ में बहता लावा है।
सोना चांदी कोख बसे, इसका सजल पहनावा है।।

पहनावे में शामिल नदियां, झीलें पहाड़ सब सुंदर हैं।
हरियाली की चादर ओढ़े, अंजुरी भरा समुंदर है।।

समुंदर सब मैल समेटे, वाष्पित होकर उड़ जाता है।
काले पीले बादल बनकर, धरती पर जल बरसाता है।।

बरसातें क्यों हुई अनियमित, जरा सोचकर देखो तो।
दूषित हुआ पर्यावरण ये कैसे, इस बारे में बोलो तो।।

जंगल पर्वत खत्म कर दिए, नदियां झीलें दूषित हुई।
प्राणीमात्र का दम घुटता है, वायु ऐसी प्रदूषित हुई।।

रे मानव अब चेत जरा, अंधाधुंध दोहन त्याग दे।
स्वच्छ धरा निर्मल गगन का, सबको अपना भाग दे।।

अति का लालच लालसा, है महाविनाश का ‘राज़’।
विश्व धरा हो पुनश्च निर्मल, बस इतना जानें आज।।